इक
कसक भी ना उठेगी
दिल में
कि
दिल तो अब पथर
है
कि
जब पूछेंगे वो हमसे
क्या
सीखा था तुमने
जर्मनी
की ग़लतियों से
क्यूँ
सबक़ नहीं लिया
इटली
से
जब
वो हमारा वतन जलाने को
हमारे
ही आँगन की लकड़ियाँ
ले जा रहे थे
तब
कहाँ थे हम ?
तब
हम शायद कुछ भी
कहने को
सुन्ने
को, ज़िंदा ही ना हों
साँस
चलती भी हो
आँख
झपकती भी हों
पर
ज़िंदा तो ना होंगे,
यक़ीनन!
पर
मोहब्बत तब भी ज़िंदा
होगी
किसी
ना किसी दिल में
कोई
ना कोई
तब
भी देखेगा वही सपने
जिन्हें
दफ़्तर की कुर्सी के
तले
दफ़्न
कर दिया हमने
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